पदमश्री जिव्या सोमा
म्हसे यह महाराष्ट्र के आदिवासी वारली समाज के प्रथम पदमश्री सन्मान से सन्मानित
व्यक्तिमत्व थे | वारली चित्रकला अनादी है लेकिन उसी वारली चित्रकला के माध्यम से उन्होंने वारली
चित्रकला का परिचय पुरे विश्व को करवाया | उच्च कोटी का मूल्य जतन करनेवाली सुसंस्कृत
आदिवासी समाज का परिचय उन्होंने अपनी पेन्टिंग के माध्यम से करवाया |वारली चित्रों
की प्रतिकृति, यही आदिवासी संस्कृति की पहचान बनाने का कार्य इस वारली चित्रकार ने
किया | वारली चित्रों के माध्यम से, आदिवासी जीवन, जीवन शैली, संस्कृति के पूरे आदिवासी
तरीके को अपने चित्र के द्वारा चित्रित किया |
वारली पेन्टिंग- पद्मश्री जिव्या सोमा म्हसे |
जीवन वृतांत:
जिव्या सोमा म्हसे इनका जन्म १९ मई १९३४ को महाराष्ट्र
के पालघर जिले के गंजाड गाँव में हुआ, यह गाँव डहानू रेल्वे स्टेशन से लगभग 10 से
15 कि.मी. की दूरी पर है | जिव्या जब 7 साल के थे तब उनकी माँ का देहान्त हो गया |
बचपन में ही माँ का साया खो जाने से ओ सदमे में थे किसी से ज्यादा बाते नहीं करते
थे | गरीबी के कारन उनके पिताजीने उन्हें किसी शेठजी के पास काम को रखा, बचपन में
कुछ दिन उनकी बहनों ने भी उन्हें संभाला लेकिन गरीबी की भूक के कारन ओ बाकि
महिलाओं के साथ खेंतो में मजदूरी करने लगे | वारली चित्रकला यह आदिवासी महिलाओं की
विशेषता है, वारली आदिवासी परंपरा में जब किसी के घर मे शादी होती है तब महिलाएं
उस घर पर परंपरा के अनुसार चित्र निकालती थी | जिव्या भी इन महिलाओं के साथ जाता
था और भित्तिचित्र निकालता था इसीलिए वारली चित्रकारिता का गुर उन्होंने बचपन में
ही आत्मसात कर लिया था | उनकी शिक्षा केवल हस्ताक्षर करने के लिए अक्षरों की पहचान इतनी ही
थी फिर भी उन्होंने अपने जीवन में एक अलग मक़ाम पाया था |
जीवनकार्य :
1970 की दशक में तत्कालीन
प्रधानमंत्री आदरणीय इंदिरा गाँधी इनके कार्यकाल मे आदिवासी जनजाति की कला, प्रथा,
परंपरा के संवर्धन एवम उनके राष्ट्रीय प्रचार प्रसार हेतु एक परियोजना बनाई गयी |
इसी परियोजना के कार्यान्वयन और अनुसंधान के दरम्यान कलाविशेषज्ञ भास्कर कुलकर्णी
इनका परिचय जिव्या म्हशे इनसे हुआ | १९७६ को दिल्ली में इसी परियोजना अंतर्गत एक
प्रदर्शनी का आयोजन किया था उस प्रदर्शनी में चित्र रेखान्टन के लिए भास्कर
कुलकर्णी जिव्या और अन्य चार महिलाओं को दिल्ली लेकर गये, और वही से वारली चित्रकला
का विश्व का सफ़र शुर हो गया | पारंपरिक वारली चित्र केवल महिलाये निकालती थी और वह
चित्र पारंपरिक संकेतो से चले आ रहें वैवाहिक जीवन से जुड़े सीमित सांकेतिक चिन्ह
थे लेकिन जिव्या म्हसे इन्होने अपनी कल्पनाशक्ति से वारली चित्रकला को इक नया आयाम
दिया | त्रिकोण, चौक, चक्र इन संकेत चिन्हों के माध्यम से एक नयी श्रुंखला तयार की
जिसमे आदिवासी संस्कृति की जीवनशैली, उत्सव, नृत्य, लोककथा आदि चित्र अंतर्भूत थे |
उनकी यह चित्रकारिता की दिल्ली में बहुत सरहना हुई और तत्कालीन राष्ट्रपती फक्रुद्दीन अली और पंतप्रधान इंदिरा गांधी इन्होने 1976 को जिव्या सोमा म्हसे इनको आदिवासी कला के लिए राष्ट्रीय
पुरस्कार प्रदान किया, और वही से वारली चित्रकला का इक नया पहेलु सामने आया जो
अपनी चित्रों की माध्यम से दुनिया से बाते करने लगा | अपनी कला के लिए सर्वप्रथम
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले शायद यही पहले व्यक्ति होंगे क्योंकि अगर देखा
जाये तो किसी भी कलाकार की सराहना गाँव, तहसील, जिला, राज्य, और फिर राष्ट्रीय
स्तर पर की जाती है लेकिन जिव्या सोमा म्हसे इन सबसे अलग थे | इनके तीनो भी पुरस्कार
राष्ट्रीय स्तर के थे 2011 को इनको पदमश्री सन्मान से सन्मानित किया गया | जिव्या
सोमा म्हसे इन्होंने केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं तो वैश्विक पटल पर अपने
चित्रों को प्रदर्शन करते हुए अपनी भारतीय सांस्कृतिक गरिमा को बढ़ाया है | जर्मनी,
रशिया, जापान, इटली, इंग्लैंड, चीन, बेल्जियम इन सभी देशों में जाकर अपनी वारली
चित्रकला को आंतराष्ट्रीय स्तर पर पहुचाया है | अपनी आदिवासी संस्कृति की वारली
चित्रकला का पुरे विश्व को परिचय देने वाले जिव्या सोमा म्हसे इनका देहान्त 15 मई
2018 को हुआ | तीन राष्ट्रीय पुरस्कार और जापान, बेल्जियम आदि देशों ने सम्मानित
करने के बावजूद भी अपने अंत समय तक का जीवन उन्होंने सामान्य तरीके से अपने गाँव
में ही बिताया और अपनी लोककला को प्रशिक्षण के माध्यम से अगली पीढ़ी को सौंपा है |
पुरस्कार :
1976- आदिवासी कला के लिए
राष्ट्रीय पुरस्कार
2002- उन्हें शिल्प
गुरु का राष्ट्रीय पुरस्कार
2009- वारली पेंटिंग के
लिए प्रिंस क्लॉज़ अवार्ड बेल्जियम के लिए
रानी द्वारा प्रदान किया
2011- में, उन्हें वारली पेंटिंग के अपने योगदान के लिए
पद्मश्री सन्मान से सन्मानित किया गया
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