लोक नृत्य क्या है ?
लोक नृत्य किसे कहते हैं? लोक नृत्य क्या है? लोकनृत्य का अर्थ? लोकनृत्य की परिभाषा क्या है? लोकनृत्य इस विषय के संदर्भ में देवीलालजी सामर अपने ‘लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाएं’ इस पुस्तक में लोकनृत्य के बारे में कहते है कि - “जिस तरह लोकगीत बनाये नही जाते, अपने आप बनते है,
उसी तरह लोकनृत्य किसी के द्वारा बनाये नही जाते, वे अपने आप बनते है | लोकनृत्यों
पर किसी व्यक्ती तथा विशेष सृजनकर्ता की छाप नही होती, उस पर किसी व्यक्ती विशेष का
व्यक्तित्व नही होता, सारे समाज द्वारा ही वे बनाये जाते है सारे समाज के व्यक्तित्व
की छाप उस पर अंकित होती है; यही कारण है कि लोकनृत्य सर्वगम्य, सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य
होते है |”
गीत, नृत्य तथा वाद्य
इन तीनों के संयोग को संगीत कहा गया है और लोकसंगीत इस संगीत की एक प्रमुख धारा है। लोकनृत्य, लोकगीत,
लोकवाद्य यह लोकसंगीत में एक-दुसरे पर निर्भर होते हैं। लोक नृत्य किसी एक व्यक्ति की निर्मिति नहीं है और ना
ही एक व्यक्ति की कृपा से जिंदा है। लोक नृत्य की आत्मा और सृजनहार तो समाज है,
लोक है। इसके बदले में समाज या लोक का आनंद
स्रोत लोक नृत्य है। लोक नृत्य किसी भी समाज, क्षेत्र, अंचल एवं राष्ट्र
की जिंदादिली की परिचायक है ।
![]() |
लोकनृत्य |
लोक नृत्य प्रकृति की अनोखी देन है
लोक नृत्य प्रकृति की अनोखी देन है। प्रकृति का दूसरा नाम ही लोक नृत्य है। मानव अपनी आदि अवस्था में शिकार की तलाश में दिन रात जंगलों में भटकते रहते थे। दिन-रात जंगलों झाड़ियों में भ्रमण के दौरान आदि मानव ने प्रकृति की अनेक रचनाओं क्रियाओं का अवलोकन उनमें रच बस कर निकट से किया। उसने हवा के झोंको से डालो को झूमते देखा, बिजली की चमक देखी वर्षा की बूंदों की टप-टप की ध्वनी का अनुभव किया, बादलों की गर्जना सुनी तथा जंगली हाथियों को मदमत्त चाल से झूमते देखा। चिड़ियों की चहचहाहट, भंवरों की गुनगुनाहट, झिन्गुरो की झनझनाहट और कोयल की कुहू कुहू का मधुर स्वर भी उसके कानों में पड़ा। हिरण की चौकड़ी, सर्प की लहराती गति, मेंढकको की उछाल तथा मोर और कबूतर की थिरकन से उसे आकर्षित कर नृत्य क्रिया के आविर्भाव के लिए प्रेरित किया। प्रकृति की इस अनोखी क्रियाशीलता को देखकर उसने भी अनुकरण करना प्रारंभ किया क्योंकि मानव प्रारंभ से ही कौतूहल प्रिय एवं सृजनशील रहा है, अतः प्रकृति की अनेक मनोहारी कलाओं की इन नृत्यात्मक विधाओं से प्रेरणा लेकर आदिमानव ने अपने मनोरंजन के लिए धीरे धीरे अनेक नृत्य कलाओं को जन्म देना आरंभ किया।
जीवधारी वर्ग में आनंद का सृजन है लोकनृत्य
मानव आदिकाल से नाचता चला आ रहा है। छोटा सा शिशु पालने में जब आनंद
विमल होता है तो उसकी खुशी का पारावार नहीं रहता। वह हाथ पैर चलाता है, किलकारी मारता है। उसका आनंद उसके अंग प्रत्यंग
से मानो फुटकर निकल पड़ता है। मृग का छौना, गाय का बछड़ा मां का दूध
पीकर खुशियांली में उछलता-कूदता है। पक्षी भी जब मन में उमंग आती है तो
अपने-अपने जोड़ों के सामने उन्हें रिझाने के लिए नाचते हैं। काले काले मेघा को
देखकर मोर नाचते हैं कबूतर-कबूतरी के आसपास नाचते हुए किलोल करता है। इस
प्रकार जान पड़ता है कि समस्त जीवधारी वर्ग में आनंद का सृजन होता है और वह
आनंद अपने आप प्राणी मात्र के हावभाव अंग संचालन से या अंग विन्यास से प्रकट होता
है। उसके अंग फडकते हैं, मचलता, उछलता है- बस लोक नृत्य का जन्म यहीं से होता है।
लोकनृत्य के निर्माण में प्रकृति ही जननी है
लोक नृत्य प्राकृतिक है। ना इनकी शास्त्र परक एक रचना की गई
है, नहीं इनके शास्त्रोक्त सूत्र निर्धारित हैं। काल की गति और
उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए अपने अस्तित्व की स्वयं रक्षा करने में सक्षम यह लोक
नृत्य सदियों से समाज और राष्ट्र की निधि के रूप में निखरते और सवरते चले आ रहे हैं। प्रकृति प्रेरणा की प्रतिमूर्ति है, हमारे यह लोक नृत्य। जिस भूभाग की जैसी प्राकृतिक छटा है आज
वहां प्रचलित लोक नृत्य भी उसी के अनुरूप है। पहाड़ों पर बसने वाले लोगों के नृत्य
बहुत ही मंद है, तो भाटा पहाड़ों
पर बसने वाले लोगों के लोक नृत्य उछल-कूद लिए हुए हैं। मैदानी
भागों के नृत्य सरस, सीधे और गतिमान है। जहां का वातावरण प्रकृति
की छटा से हीन है वहां के लोक नृत्य में रसहिनता भी है। इससे यह सिद्ध होता है कि
लोकनृत्य के निर्माण में प्रकृति ही जननी है।
प्रकृति ही उसका मूल है। सजाने संवारने का काम (लोक) समाज ने किया है। उसने
अपनी संस्कृति की छाप उनकी साज सज्जा में लगाई है। अपने सांस्कृतिक रीति-रिवाजों
को लोकनृत्य रूपी माला में पिरोया है।
भारतीय ग्राम जीवन का सच्चा चित्र- लोकनृत्य
लोक नृत्य की उर्वरा भूमि ग्रामीण परिवेश है। गांव में लोक नृत्य के आयोजन के
लिए कोई निश्चित या नपा तुला रंगमंच नहीं होता है बल्कि खुले रूप से ग्रामीण जनों
द्वारा निर्धारित किए गए एक सार्वजनिक स्थान में लोकनृत्य संपन्न होते हैं। भारतीय
ग्रामीण जीवन का सच्चा चित्र भारतीय लोक नृत्य में देखने को मिलता है | लोकनृत्यो के अवलोकन से ग्रामीण परिवेश के सहज आचार विचारों का स्पष्ट ज्ञान होता है।
भारतीय लोक संस्कृति में लोकधर्मिता का विशेष महत्व होता है। यह लोक धर्मिता हमारे
उत्सवों, पर्वो, तीज-त्योहारों और सांस्कृतिक
अवसरों आदि पर अपने मूल उत्सव पर पाई जाती है। वास्तव में यह इन्हीं सांस्कृतिक
तत्वों पर केंद्रित होकर जन-जन में उल्लास और उमंग का संचार करती है।
भारतीय लोक नृत्य में तो लोक धर्मिता प्राण
रूप में पाई जाती है। लोक नृत्य लोक विधाओं की एक सशक्त शाखा है। सारर रूप में यह कहा जा सकता है कि लोक नृत्य का भारतीय लोक जीवन से गहरा संबंध
है क्योंकि लोक संगीत एवं लोक नृत्य के द्वारा ही मानव की सांस्कृतिक पहचान की
कल्पना की जा सकती है।
भारतीय लोक नृत्य मानव के प्रेरणा स्रोत है। भारतीय लोक नृत्य हमारे लोक
संस्कृति की अद्वितीय शक्ति है। यह लोकनृत्य इतने वैभवशाली और सक्षम और सशक्त होते
हैं कि विशाल जनक समूह को पूरी पूरी रात बांधे रहते हैं। लोकरुचि के साधन के रूप
में लोक नृत्य अपनी कलात्मक प्रवृत्ति में इतने परिपक्व होते हैं कि जन सामान्य
स्वाभाविक रूप से इनकी ओर आकर्षित होता चलाता है। लोक नृत्य का एकमात्र उद्देश्य
जन-जन को आनंद प्रदान करना होता है वे अपने इस मूल प्रवृत्ति के धनी होते हैं।
उन्हें न तो किसी समीक्षक की आवश्यकता
होती है और ना ही किसी समालोचक की। वेशभूषा, अलंकरण, आभूषण, परिधान, भाव भंगिमाए, कथावस्तु, लोक गीत, लोक वाद्य, नाट्य और अभिनय आदि का जीवंत समावेश होने के कारण लोकनृत्य
अपने मनोरंजनकारी शक्ति के धनी होते हैं। भारतीय समाज के आंचलिक रीति-रिवाज,
कामकाज, पहिनावा-ओढावा, आस्था-विश्वास, धार्मिक व
सांस्कृतिक परंपराएं, संस्कारी रस्में,
अंन्तप्रेम, सहज-श्रृंगार, खेती-बाड़ी, भक्ति भाव,
एवं व्यायाम आदि इन लोक नृत्य में अंतर्निहित
होते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
If you have any doubts, Please let me know