जानिए महाराष्ट्र के तंतुवाद्यों के बारे में | Know about the chordophones folk instruments of Maharashtra.


      
          महाराष्ट्र में लोकसंगीत की बहुत बडी परंपरा है जिसमे विविध लोकनाट्य लोकवाद्य, लोकनृत्य ऐसी अनेक विविधांगी लोकसंस्कृति का दर्शन होता है| महाराष्ट्र में अनेक लोकवाद्य है जिसमे तंतुवाद्यों  की एक अलग विशेषता है वे तंतुवाद्य कौनसे है तो जानिए महाराष्ट्र के तंतुवाद्यों के बारे में 


1.     तुणतुणे - 

तुणतुणे,Tuntune, string Musical instruments, folk instruments of maharashtra

तुणतुणे | Tuntune



तुनतुना यह महाराष्ट्र का एक तंतुवाद्य है जो महाराष्ट्र की प्रयोगरूप लोककला  रूपों में जैसे पोवाड़ा, कलगी -तुरा, गोंधलतमाशा आदि लोककला प्रकारों में गीतों के गायन के लिए आधार स्वर देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। एकतारा जैसा यह वाद्य यंत्र है| एकतारा भक्तिसंगीत में प्रयुक्त होता है और तुनतुना  लोकसंगीत में प्रयुक्त होता है |तुनतुना तयार करने के लिए लकड़ी, तार, बांस की लकड़ी, चमड़ा सामग्री का इस्तेमाल होता है | कम से कम दोनों तरफ से  पंधरा से बीस सेमी  व्यास का और दस से बारह सेमी  हाइट का डिब्बे जैसा दिखने वाला लकड़ी का खोंख्ला जो भाग होता है उसको एक साइड से चमड़ा चिपकाया जाता है और उसके मध्य में तार बोया  जाता है और  बांस की लकड़ी में सबसे ऊपर की तरफ छोटी लकड़ी की जो खूँटी होती है उसमे  वह तार बिठा दी जाती है | गायक अपनी आवाज की हिसाब से तुनतुने को सेट करता है और उसमे से निकलने वाली सुर की आधार पर गीत गाता है, सुर को उपर निचे खूंटी घुमाकर किया जाता है | इसका ध्वनि तृणत्तृण ऐसा आता है इसलिए इसे तुनतुना कहा जाता है


2. किंगरी/ किन्नरी 

   प्राचीन काल से कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला तंतुवाद्य किन्नरी है। यह समय के साथ बदल गया और विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाने लगा।इसे सरिन्दा, सारंगी, सारंगा जैसे कई नामों से पुकारा जाता है। महाराष्ट्र में इसे किंगरी के नाम से जाना जाता है भराडी, जोगी, नाथपंथी, गोसावी आदि घुमंतू जनजाति के लोककलाकारों का उपजीविका का साधन है यह किंगरी तंतुवाद्य | यह सभी लोंग इस वाद्य के सहारे रामायण, महाभारत के साथ-साथ पौराणिक कथाओं पर आधारित गीत सुनाते गाँव गाँव घूमते रहते है | आज के यांत्रिकी करन के युग में भले ही इनकी उपजीविका का साधन बदल गया हो लेकिन आज भी बहुत सारे कलाकारों ने यह कला जीवित रखी हुयी है और कुछ कलाकारों की उपजीविका इसी पर चलती है | 
     किंगरी तंतुवाद्य का निर्माण आमतौर पर शीसम या साग की डेढ़ फीट की गोलाकार लकड़ी, नारियल की सुखी करावेंटी, कमाई हुई खाल(चमड़ा), तार, घोड़े के पूंछ के बाल इन सब चीजो से होती है| नारियल की सुखी करावेंटी लकड़ी में फीट करके करावेंटी के उपर चमड़ा चिपकाया जाता है और लकड़ी के निचे की छोर से उपर की छोर तक तार जोड़ दिए जाते है उपरी छोर में तार को फिट करने के लिए दो छोटी लकड़ी खूंटि लगायी होती है | यह वाद्य घर्षण से बजता है इसलिए इसपर घर्षण करने के लिए डेढ़ फिट का धनुष होता है जिसके दोनों छोर घोड़े की पूंछ की बालों से बंधे होते है इस धनुष को गज कहते है| गज को मेंन लगाया जाता है जिससे उसमे मृदुता आ सके और मधुर ध्वनि का निर्माण हो | किंगरी को बाये हाथ से उपरी छोर को पकड़ते है और दाये हाथ में गज लेकर उसपर घर्षण करके बजाते है इसमे से निकलने वाली धुनें इसको सुनने वाले का मन मोह लेती है | व्हायोलिन तो एक विदेशी वाद्य है इसको तो आप सभी ने देखा होगा तो बस यूँ समज़ लीजिये की किंगरी, रावनहत्ता जैसे वाद्य हमारे देसी व्हायोलिन है जो व्हायोलिन की जनम से पूर्व हमारे पुरानें ज़माने से बजते हा रहें है और आज भी अपनी मधुर स्वर लहरीयों से लोंगो को मंत्रमुग्ध कर रहें है |

3. घांगली 
घांगली, घांगळी
घांगली

       घांगली यह महाराष्ट्र के आदिम जनजाति वारली, कोकना इनका एक तंतुवाद्य है | अगर देखा जाये तो विश्व की सभी आदिम जनजातिया प्रकृति की उपासना करते है उनकी इसी उपासना विधी के लिए घांगली इस तंतुवाद्य पर आधारित गीत गाये जाते है | जब खेतो में फसल कटाई होती है और धान को घर में लाया जाता है तब उस धान को घर में लाने से पूर्व आदिवासी उनकी देवता कणसरी माता और धरतरी माता इनका ण व्यक्त करने के लिए उनकी आराधना में जो गीत या कथागीत गाये जाते है वो इस घांगली वाद्य पर गए जाते है | घांगली वाद्य के निर्माण के लिए प्राकृतिक उपादानों से मिलने वाली वस्तुओं का उपयोग होता है जैसे की लकड़ी, लौकी, आदि | दो सुखी लौकी के उपर लकड़ी को फिट करके उसके उपर दो तार बिठाये जाते है गीत गाने वाला या कथागीत गाने वाल उसको अपने माथे के पास पकड़कर घांगली से निकलने वाले सुर के आधार पर गीत सुनाता है | घांगली इस वाद्य के बारे में मराठी भाषा में जानकारी नीचे की video link पर उपलब्ध है |



4. चौन्डके  

                
         यल्लमा देवी के उपासक जिनको आराधी (स्त्री उपासक – जोगतिन पुरुष उपासक- जोगत्या) कहा जाता है उनके द्वारा यल्लमा देवी के उपासना गीत गाए जाते है उन गीतों को चौन्डके इस तंतुवाद्य के सहारे गया जाता है | राजस्थान का भपंग और महाराष्ट्र का चौन्डके यह एक जैसे ही वाद्य है इनकी रचना में थोडा बहुत फर्क है भपंग का नीचेवाला लकड़ी का भाग डमरू के आकार का होता है और चौन्डके का निचे वाला लकड़ी का आकार गोल डिब्बे जैसा यानी तुणतुणे का निचला लकड़ी का भाग होता है वैसा होता है| भपंग गिटार बजाने की स्टिक्स से बजाई जाती है  और चौन्डके उँगलियों से छेडकर बजाया जाता है|

5. वारकरी विणा

            महाराष्ट्र भूमि को संतों की भूमि कहाँ जाता है 12 वी 13 वी शताब्दी से संतों द्वारा एक भक्ति आन्दोलन की शुरवात हुई जिससे महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय की  भक्तिसंगीत की धारा प्रवाहित हुई | वारकरी संप्रदाय के आराध्य माने जाने वाले भगवान श्री विट्ठल इनके आराधना में किये जाने वाले भजन, कीर्तन, जैसी भक्तिसंगीत की विधाओं में वारकरी विणा इस तंतुवाद्य का उपयोग स्वर के लिए होता है| इस वीणा को पांच तार लगे होते है इन तारों में से चार तार एक ही सुर में लगाते है और एक तार उन तारों के खर्ज स्वर में लगाया जाता है | विणा के आधार स्वर से ही वारकरी भजन कीर्तन में गायन होता है |     


6. एकतारी/ इकतारा

                             इकतारा यह तंतुवाद्य पुरे भारतवर्ष में लगभग सभी राज्यों में भक्ति संगीत के लिए प्रयुक्त होता है | संत मीराबाई के सभी चित्र इकतारा इसी वाद्य के साथ दिखते है | महाराष्ट्र में नाथपंथी, दत्तसंप्रदाय के एकतारी भजनों की परंपरा है इन सभी भजनों में एकतारा वाद्य के साथ भजन गायें जाते है |  3 से 4 फूट की बाम्बू की लकड़ी के निचले भाग को कद्दू लगाया जाता है और कद्दू की एक साईट को चमडा लगाया जाता है, बाम्बू के उपरी भाग को लकड़ी खूंटी लगाकर निचे से उपर की खूंटी तक तार बिठाया जाता है | यह दो तार होते है लेकिन यह इकतारा के नाम से ही जाना जाता है |



उपर दी गयी जानकारी अगर आपको अच्छी लगी तो आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहें गी |





    




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